Kabban Mirza Indian singer

Kabban Mirza is a 66 years old Indian singer from . Kabban Mirza was born on October 25, 1937 (died on December 23, 2003, he was 66 years old) in .

About

Is Kabban Mirza still alive?

No, he died on 12/23/2003, 20 years ago. He was 66 years old when he died.

Popular Kabban Mirza Songs

  1. Aayee Zanjeer Ki Jhankar, Pt. 1 (Razia Sultan (Original Motion Picture Soundtrack), released 41 years ago)
  2. Tera Hijr Mera Naseeb Hai (Razia Sultan (Original Motion Picture Soundtrack), released 41 years ago)
  3. Aayee Zanjeer Ki Jhankar, Pt. 2 (Razia Sultan (Original Motion Picture Soundtrack), released 41 years ago)
  4. Choooha Chuhiya Ki Kahani - Narration (Choooha Chuhiya Ki Kahani, released 12 years ago)
  5. Laalach Ke Laddoo - Narration (Choooha Chuhiya Ki Kahani, released 12 years ago)
What was Kabban's zodiac sign?

Kabban Mirza zodiac sign was scorpio.

Other facts about Kabban Mirza

Kabban Mirza Is A Member Of

Comments

rakesh kr. Verma - 2 years ago
तेरा हिज्र मेरा नसीब है ...... चित्रपट : रज़िया सुल्तान (1983) गीतकार : निदा फ़ाज़ली घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो ये कर लें। किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए॥ ये उसी फकीर का कलाम हैं, जो इमामों के तमाम विरोधों के बावजूद भूखे बच्‍चे को बहलाने में खुदा की इबादत महसूस करता है। ये निदा (आवाज) कश्‍मीर के उस फाजिलावासी की है जो क़ृष्‍णवियोग के सूरदास पद ‘मधुबन तुम क्यौं रहत हरे? बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे?’ से प्रेरित है। भक्तिरस में ऐसे ही - ‘उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अराधै ते ईस’ से प्रेरित मिर्ज़ा ग़ालिब ने "दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है? जैसी रचना की। तेरा हिज्र ... को भी हम अध्‍यात्मिक प्रेम की इसी दृष्टि से देखते हैं, क्‍योंकि प्रेम जीवन का सहोदर है, आत्‍मा का प्रेमी है, प्रकृति का संगीत है, प्राणों का सौन्‍दर्य है, सृष्टि का निर्माण है और सृष्‍टा का परमाणु है। प्रेम में जिसे विश्‍वास नहीं, वह अभागा है। जो प्रेम नहीं कर सकता वह विश्‍व-मिट्टी का उपहास है । ‘प्रेम में जिसे नहीं विश्‍वास, प्रेम की जिसे नहीं है प्‍यास। क्षुद्र उसको प्रभु जीव विलास, विश्‍व मिट्टी का वह उपहास।।‘ मलिक मुहम्‍मद जायसी का प्रेम भी, भोग-विलास से परे भक्ति की सतह से उपजा है- ‘मेहि भोग सौं काज न बारी, सौह दीठि की चाहत हारी’ इस विरह काव्‍य में प्रियतम के दर्शन के सिवा, किसी भोग विलास की आकांक्षा नहीं है। ‘यह तन जारौ छार कै, कहॉ कि पवन उड़ाव, मकु तेहि मारग होई परौ, कंत धरै जहाँ पांव’ अर्थात् विरह से भस्‍म हुए प्रेमिका के शरीर की रॉख को, पवन द्वारा उड़ाकर लाई गई प्रियतम के चरण धूल की प्रतीक्षा है। इसी प्रकार दिल्ली की सम्राट "रजिया सुल्तान" याकूत नामक गुलाम पर आसक्‍त होती है । जिसके सम्‍मान में याकूत अपने अनुराग को अभिव्‍यक्‍त किया है। उस परिवेश में याकूत की भावना को कब्बन मिर्जा ने उर्दू-फ़ारसी शब्दों में गाकर गूढ़ और प्रभावकारी कलाओं से परिष्‍कृत किया हैं। तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा गम मेरी हयात है.... तुझसे जुदाई (हिज्र) ही मेरी किस्मत है, और मेरे हृदय में व्‍याप्‍त चाहत का ग़म ही सुखद अहसास बनकर मेरी ज़िंदगी (हयात) को हसीन बना रही है। तुम्‍हारे वियोग में दु:खी होने का कोई कारण नहीं है क्‍योंकि, प्रतिक्षण मैं तुम्‍हें अपने करीब पाता हॅूं, चाहे तुम कहीं भी रहो। मैं चिन्तित हूँ तो केवल इस कारण कि एक काले गुलाम से लगाव के कारण तुम पर कोई कलंक न लगे, क्‍योंकि ऐसी स्थिति में मैं स्‍वयं को क्षमा नहीं कर सकूंगा। मुझे समाज के बनाये कथित रीति-रिवाजों और मान्‍यताओं के विरुद्ध आचरण करने का भय नहीं है। मेरी चिन्‍तायें हैं, तो सिर्फ तुम्‍हारे व्यक्तित्व की पवित्रता से। हे प्रिये। मेरे भाग्य में वियोग होते हुए भी, मेरी अपेक्षाये तुम्‍हारी चाहत में अनुरक्‍त हैं तुम्‍हारे प्रेम की अनुभूति से मैं कृतज्ञ हॅूं इसलिए, इस इस जीवन को सार्थक पाता हॅूं। जो वास्तव में जीवन के अनुपम अनुभूति हैं। अप्रासंगिक : कमाल अमरोही की ‘रज़िया सुल्तान’ के दो गीत ‘आई ज़ंजीर की झंकार, खुदा खैर करे’ और ‘तेरा हिज्र मेरा नसीब है’ को आकाशवाणी से संबंध रखने वाले कब्बन मिर्ज़ा ने को स्‍वर दिया है। कमाल अमरोही ऐसी दीवानगी में डूबकर फिल्में बनाते थे जिसमें राई-रत्‍ती की कमी की गुंजाइश नही रहती थी। उन्‍होंने संगीतकार खैयाम साहब को इल्तमश और रज़िया सुल्तान के इतिहास और उस दौर के साज़ों का अध्‍ययन कराया। जब रज़िया सुल्तान (हेमा मालिनी) के ग़ुलाम और फिर आशिक़ याकूब (धर्मेद्र) के गीत में पार्श्‍वगायक का सवाल आया तो उसकी तलाश में 50 से ज़्यादा गायको के स्‍वर-परीक्षण भी खरे नहीं उतरे । इसी नाउम्मीदी में किसी ने कब्बन मिर्ज़ा का नाम सुझाया, जो मोहर्रम के दौरान मर्सिये और नोहे (हज़रत इमाम हुस्सैन की शहादत के शोक में में गाए जाने वाले गीत. इसे गाने वाले को नोहेख्वां कहा जाता है) गाते थे। फिल्‍म के हिसाब से उनके स्‍वर ने वो करामत दिखाई कि सुनने वाला अगर सो रहा हो तो चौंककर उठ जाए और जागने वाले को लगे कि उसकी आत्मा ने ही गाना शुरू कर दिया है। ऐसा जादू मौजूदा हाल में संभवत: अभी तक नहीं देखा गया । पहला गीत …आई जंजीर की झंकार ... जांनिसार अख्तर ने और दूसरा …तेरा हिज्र ...निदा फाज़ली ने लिखा। जब बाज़ार में ये गीत आए तो कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ का जादू फिजाओं में घुल गया। हालांकि इस गीत से पहले उन्‍होंने वर्ष 1964 की स्टंट फिल्म ‘कैप्टन आज़ाद’ में – आज उनके पा-ए-नाज़ पे सजदा करेंगे हम / उनके बग़ैर जी के भला क्या करेंगे हम.’गीत गा चुके थे। सेवानिवृत्‍त होकर जब गाने के इस शौक को पूरा करना चाहा तो उनके गले में कैंसर हो गया। इलाज उपरांत स्‍वस्‍थ होने के बावजूद लौटी इस बीमारी ने उनका स्‍वर छीन लिया। ... और अंतत: एक दिन वो भी खामोशी के आगोश में समा गये। राकेश कुमार वर्मा मो; 7999682930

rakesh kr. Verma - 2 years ago
तेरा हिज्र मेरा नसीब है ...... चित्रपट : रज़िया सुल्तान (1983) गीतकार : निदा फ़ाज़ली घर से मस्जिद है बड़ी दूर, चलो ये कर लें। किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए॥ ये उसी फकीर का कलाम हैं, जो इमामों के तमाम विरोधों के बावजूद भूखे बच्‍चे को बहलाने में खुदा की इबादत महसूस करता है। ये निदा (आवाज) कश्‍मीर के उस फाजिलावासी की है जो क़ृष्‍णवियोग के सूरदास पद ‘मधुबन तुम क्यौं रहत हरे? बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे?’ से प्रेरित है। भक्तिरस में ऐसे ही - ‘उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अराधै ते ईस’ से प्रेरित मिर्ज़ा ग़ालिब ने "दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है? जैसी रचना की। तेरा हिज्र ... को भी हम अध्‍यात्मिक प्रेम की इसी दृष्टि से देखते हैं, क्‍योंकि प्रेम जीवन का सहोदर है, आत्‍मा का प्रेमी है, प्रकृति का संगीत है, प्राणों का सौन्‍दर्य है, सृष्टि का निर्माण है और सृष्‍टा का परमाणु है। प्रेम में जिसे विश्‍वास नहीं, वह अभागा है। जो प्रेम नहीं कर सकता वह विश्‍व-मिट्टी का उपहास है । ‘प्रेम में जिसे नहीं विश्‍वास, प्रेम की जिसे नहीं है प्‍यास। क्षुद्र उसको प्रभु जीव विलास, विश्‍व मिट्टी का वह उपहास।।‘ मलिक मुहम्‍मद जायसी का प्रेम भी, भोग-विलास से परे भक्ति की सतह से उपजा है- ‘मेहि भोग सौं काज न बारी, सौह दीठि की चाहत हारी’ इस विरह काव्‍य में प्रियतम के दर्शन के सिवा, किसी भोग विलास की आकांक्षा नहीं है। ‘यह तन जारौ छार कै, कहॉ कि पवन उड़ाव, मकु तेहि मारग होई परौ, कंत धरै जहाँ पांव’ अर्थात् विरह से भस्‍म हुए प्रेमिका के शरीर की रॉख को, पवन द्वारा उड़ाकर लाई गई प्रियतम के चरण धूल की प्रतीक्षा है। इसी प्रकार दिल्ली की सम्राट "रजिया सुल्तान" याकूत नामक गुलाम पर आसक्‍त होती है । जिसके सम्‍मान में याकूत अपने अनुराग को अभिव्‍यक्‍त किया है। उस परिवेश में याकूत की भावना को कब्बन मिर्जा ने उर्दू-फ़ारसी शब्दों में गाकर गूढ़ और प्रभावकारी कलाओं से परिष्‍कृत किया हैं। तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा गम मेरी हयात है.... तुझसे जुदाई (हिज्र) ही मेरी किस्मत है, और मेरे हृदय में व्‍याप्‍त चाहत का ग़म ही सुखद अहसास बनकर मेरी ज़िंदगी (हयात) को हसीन बना रही है। तुम्‍हारे वियोग में दु:खी होने का कोई कारण नहीं है क्‍योंकि, प्रतिक्षण मैं तुम्‍हें अपने करीब पाता हॅूं, चाहे तुम कहीं भी रहो। मैं चिन्तित हूँ तो केवल इस कारण कि एक काले गुलाम से लगाव के कारण तुम पर कोई कलंक न लगे, क्‍योंकि ऐसी स्थिति में मैं स्‍वयं को क्षमा नहीं कर सकूंगा। मुझे समाज के बनाये कथित रीति-रिवाजों और मान्‍यताओं के विरुद्ध आचरण करने का भय नहीं है। मेरी चिन्‍तायें हैं, तो सिर्फ तुम्‍हारे व्यक्तित्व की पवित्रता से। हे प्रिये। मेरे भाग्य में वियोग होते हुए भी, मेरी अपेक्षाये तुम्‍हारी चाहत में अनुरक्‍त हैं तुम्‍हारे प्रेम की अनुभूति से मैं कृतज्ञ हॅूं इसलिए, इस इस जीवन को सार्थक पाता हॅूं। जो वास्तव में जीवन के अनुपम अनुभूति हैं। अप्रासंगिक : कमाल अमरोही की ‘रज़िया सुल्तान’ के दो गीत ‘आई ज़ंजीर की झंकार, खुदा खैर करे’ और ‘तेरा हिज्र मेरा नसीब है’ को आकाशवाणी से संबंध रखने वाले कब्बन मिर्ज़ा ने को स्‍वर दिया है। कमाल अमरोही ऐसी दीवानगी में डूबकर फिल्में बनाते थे जिसमें राई-रत्‍ती की कमी की गुंजाइश नही रहती थी। उन्‍होंने संगीतकार खैयाम साहब को इल्तमश और रज़िया सुल्तान के इतिहास और उस दौर के साज़ों का अध्‍ययन कराया। जब रज़िया सुल्तान (हेमा मालिनी) के ग़ुलाम और फिर आशिक़ याकूब (धर्मेद्र) के गीत में पार्श्‍वगायक का सवाल आया तो उसकी तलाश में 50 से ज़्यादा गायको के स्‍वर-परीक्षण भी खरे नहीं उतरे । इसी नाउम्मीदी में किसी ने कब्बन मिर्ज़ा का नाम सुझाया, जो मोहर्रम के दौरान मर्सिये और नोहे (हज़रत इमाम हुस्सैन की शहादत के शोक में में गाए जाने वाले गीत. इसे गाने वाले को नोहेख्वां कहा जाता है) गाते थे। फिल्‍म के हिसाब से उनके स्‍वर ने वो करामत दिखाई कि सुनने वाला अगर सो रहा हो तो चौंककर उठ जाए और जागने वाले को लगे कि उसकी आत्मा ने ही गाना शुरू कर दिया है। ऐसा जादू मौजूदा हाल में संभवत: अभी तक नहीं देखा गया । पहला गीत …आई जंजीर की झंकार ... जांनिसार अख्तर ने और दूसरा …तेरा हिज्र ...निदा फाज़ली ने लिखा। जब बाज़ार में ये गीत आए तो कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ का जादू फिजाओं में घुल गया। हालांकि इस गीत से पहले उन्‍होंने वर्ष 1964 की स्टंट फिल्म ‘कैप्टन आज़ाद’ में – आज उनके पा-ए-नाज़ पे सजदा करेंगे हम / उनके बग़ैर जी के भला क्या करेंगे हम.’गीत गा चुके थे। सेवानिवृत्‍त होकर जब गाने के इस शौक को पूरा करना चाहा तो उनके गले में कैंसर हो गया। इलाज उपरांत स्‍वस्‍थ होने के बावजूद लौटी इस बीमारी ने उनका स्‍वर छीन लिया। ... और अंतत: एक दिन वो भी खामोशी के आगोश में समा गये। राकेश कुमार वर्मा मो; 7999682930

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